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रात बड़ी खामोश थी पर,बहुत कुछ अनकही कह गयी,
उफ़ भी न बोली और,बहुत कुछ असहनीय सह गयी ।
माँ की आधी लोरी के बीच,सोया हुआ नन्हा सा बच्चा,
प्रिय का किया वादा,थोड़ा सा झूठा और थोड़ा सच्चा।
मंत्रियों की राजनीतिक बातें,और बातों की गहरी घात,
दिन भर की झिकझिक,रात शराब के संग हुई बरदाश्त।
बेला की महकती खुशबू,घुंघरूओं की छलिया छन-छन,
हर वर्ग के आदत से लाचार,पहुँच जाते हैं वहां बन-ठन।
मन की गन्दगी के वशीभूत,तन की गन्दगी में लोटते हैं,
घर पर राह तकती पत्नी के,मन में डर के घाव फूटते हैं।
रौशनियों में डूबी ये,खिलखिलाहटों की दर्द की रवानी है,
पलभर खुशी की तलाश की,लुटने-लुटाने की कहानी है।
किसी के हाथ मेहँदी सजी,कोई विवाह के नाम जल गयी,
जीवन संगिनी थी वो फिर क्यों,दहेज की बलि चढ़ गयी ।
बड़े-बड़े खिलाड़ियों के खेलों की,होती करोड़ों की सेटिंग,
कौन कितना खेलेगा उसके ही,हिसाब से उसकी रेटिंग।
कभी राज़ को राज़ रखने के बदले,कोई जान ली जाती है,
फिर अगले दिन उजाले में,झूठी तहकीकात की जाती है।
दशहरा,दुर्गापूजा,रमजान,क्रिसमस के जश्न भी होते हैं,
कहीं बहुतों को समेट गोद में जलते,शमशान भी रोते हैं।
कहीं घरों में चुपचाप खौफ़नाक,इरादों संग लुटेरे घुसते हैं,
निरीह,एकाकी बुज़ुर्ग,लाचार उनकी,दरिंदगी में पिसते हैं।
कहीं झाड़-फूंक और गंडे-ताबीजों की,तांत्रिक लीलाएं होती हैं,
कहीं धूनी रमाते बाबाओं की,खौफ़नाक रासलीलाएँ होती हैं।
सड़कों पर रातों में दौड़ती,100 नंबर पुलिस गश्त करती है,
मगर वो वारदातियों को कभी भी,रंगे हाथों नहीं पकड़ती है।
रात बड़ी खामोश थी पर,बहुत कुछ कहा अनकहा कह गयी,
उफ़ भी न बोली और बहुत कुछ,भयावह असहनीय सह गयी ।
( जयश्री वर्मा )
मेरी इस कविता “बोलती,खामोश रात” की पंक्तियाँ आज के दैनिक जागरण दिनांक 12 अगस्त 2013 में “अनकही सी” शीर्षक से प्रकाशित करने के लिए दैनिक जागरण स्टाफ का बहुत-बहुत धन्यवाद !
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