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ये जो भीड़ है –
न जाने कहाँ से आती है और न जाने कहाँ को जाती है,
सुबह होने के साथ ही सड़कों,चौराहों पे नज़र आती है।
भीड़ के रुकते,चलते पैर और सफेद,काले बालों वाले मस्तक,
कभी हाथों में कैंडिल,कभी बैनर,कभी सार्थक कभी निरर्थक।
कुछ आदमी,कुछ औरत और कुछ बच्चों की शक्ल में,
कभी ढूँढ रही छाँव है तो कभी दौड़ रही जलती धूप में।
दो,तीन,चार पहिया वाहनों पर,चढ़ के कहीं को जाती है,
और बस जल्दी पहुँचने की होड़ में,व्याकुलता फैलाती है।
इसकी बहुत सारी आँखों में,घूरता अनजानापन काबिज़ है,
हर कहीं नज़र आती है और ये शोरगुल भी बहुत मचाती है।
ये झूठी ही हंसी हंसती है-जलसों,हास्य सम्मेलनों,पार्कों में,
होली,दीवाली,रावण के संहार जैसे कई अन्य त्योहारों में।
ये खूब चीखती चिल्लाती है और अपना विरोध दर्ज कराती है,
कभी हक़ कह,कभी विरोध में,नारेबाजी कर मांगें मनवाती है।
ये शांत नज़र आती है मंदिर,मस्जिद,चर्च और गुरुद्वारों में,
सिनेमा घरों के अंदर और कुछ नामी बाबाओं के दरबारों में।
ये रोती है दैवीय आपदा में ,आंसूगैस और पुलिसिया मार पर,
किसी बड़े नेता,अभिनेता की शवयात्रा हो,या शमशान घाट पर।
शायद अँधेरे से डरती है इसीलिए रात में वज़ूद खत्म करती है,
और जहां कहीं से भी आई थी,ये चुपचाप वहीं प्रस्थान करती है।
( जयश्री वर्मा )
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