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ऐसे कितने ही सरबजीत, कई विदेशी जेलों में फंसे हैं ,
आँखों में झाइयाँ ,शरीर है ढांचा,पर बेड़ियों में कसे हैं।
गालियों और लातों की रोटी से, वो मन का पेट भरते हें ,
कल के जीने की आस में,वो रोज तिल -तिल मरते हैं ।
जो हर रात – रात भर दहशत की, नींद जागा करते हैं ,
और हर दिन -दिन भर रहम की, भीख माँगा करते हैं ।
हर त्यौहार में जो सपनों में, अपनों के संग- साथ जीते हैं ,
उनके भी घर पर होली,क्रिसमस,बैसाखी,ईद कहाँ मनते हैं।
यहाँ भी तो इंतज़ार में,उनके अपनों की आँख बिछी रहती है,
पत्नियाँ उनकी आस में,करवाचौथ कर मांग भरा करती हैं।
कितने ही बच्चों को अपने पिता की स्मृति ही नहीं कुछ भी,
दया या तिरस्कार यही नियति है,यही उनका जीवन सत्य भी।
बस वो यूँ ही सुनी स्मृतियों और फोटो के साथ पल जाते हैं ,
हालात के साथ वे सब,खुद-ब-खुद बस यूँ ही ढल जाते हैं ।
ये बच्चे मन की उम्मीदों को, मन में ही खत्म कर लेते हैं,
नहीं है पिता का साया, जान कोई भी सवाल नहीं करते हैं ।
ऐसे कितने ही सरबजीत ,न जाने,कितने ही देशों में बसते हैं,
जो शरीर के तो साथ हैं ,पर दिल उनके अपने देशों में बसते हैं।
( जयश्री वर्मा )
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